कुण्डलिनी जागरण

समर्थ गुरु की कृपा से ही कुण्डलिनी जागरण संभव है।

भारतीय ऋषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में अन्तर्मुखी होकर खोज की तो पाया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मनुष्य शरीर में है।

भारतीय ऋषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में अन्तर्मुखी होकर खोज की तो पाया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मनुष्य शरीर में है। जब ऋषियों ने और गहन खोज की तो पाया कि इस जगत् का रचयिता ‘सहस्रार’ में स्थित है और उसकी शक्ति मूलाधार में। इन दोनों के कारण की संसार की रचना हुई।

उस परम पुरूष की शक्ति उसके आदेश से नीचे उतरती गई। इसके चेतन होकर ऊर्ध्वगमन करते हुए सहस्रार में पहुँचने का नाम ही ‘मोक्ष’ है।

  • गुरु-शिष्य परम्परा में जो शक्तिपात दीक्षा का विधान है, उसके अनुसार गुरु अपनी शक्ति से कुण्डलिनी को चेतन करके ऊपर को चलाते हैं। गुरु का इस शक्ति पर पूर्ण प्रभुत्व होता है, इसलिए वह उस गुरु के आदेश के अनुसार चलती है। क्योंकि यह सहस्रार में स्थित परमसत्ता की ‘पराशक्ति’ है अतः यह मात्र उसी का आदेश मानती है।

  • इसका स्पष्ट अर्थ है कि जिस व्यक्ति को सहस्रार में स्थित उस परमतत्त्व की सिद्धि हो जाती है, वही इसका संचालन करने का अधिकारी है। यह शक्ति विश्व में एक समय में मात्र एक व्यक्ति के माध्यम से कार्य करती है। अतः संसार में, एक समय में यह कार्य मात्र एक ही व्यक्ति द्वारा संपन्न हो सकता है। क्योंकि यह सार्वभौम सत्ता है, इसलिए वह व्यक्ति विश्वभर में अभूतपूर्व क्रांतिकारी परिवर्तन करने की सामर्थ्य रखता है।

जिस देवी शक्ति को बाहर हम राधा, सीता, पार्वती, अम्बा, भवानी, जोगमाया, सरस्वती आदि नामों से पूजते हैं, वही परम चेतना हमारे शरीर में, रीढ़ की हड्डी के अन्तिम सिरे अर्थात् मूलाधार में नागिन (सर्पिणी) के रूप में साढ़े तीन फेरे लगाकर सुषुप्त अवस्था में रहती है, जिसे योगियों ने कुण्डलिनी कहा है। इसके जाग्रत हुए बिना मनुष्य का व्यवहार पशुवत् रहता है। समर्थ सद्गुरु की करुणा से ही वह आदिशक्ति कुण्डलिनी जाग्रत होती है।
  • सिद्धयोग में सद्गुरु अनुग्रहरूपी शक्तिपात दीक्षा से शिष्य की कुण्डलिनी जाग्रत करते हैं। कुण्डलिनी के जाग्रत होकर सहस्रार में पहुँचने का नाम ही मोक्ष है। हमारे शास्त्र कहते हैं- जब तक कुण्डलिनी शरीर में सुषुप्तावस्था में रहेगी, तब तक मनुष्य का व्यवहार पशुवत रहेगा और वह उस दिव्य परमसत्ता का ज्ञान पाने में समर्थ नहीं होगा, भले ही वह हजारों प्रकार के यौगिक अभ्यास क्यों न करे।

  • जब गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है तो वह साधक का शरीर, प्राण, मन और बुद्धि अपने स्वायत (अधीन) कर लेती है अतः शक्तिपात दीक्षा के बाद साधक को अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर अनुभव होने लगते हैं जैसे कि यौगिक क्रियाएँ (आसन, बन्ध, मुद्राएँ एवं प्राणायाम), विचार परिवर्तन, और आध्यात्मिक विषय की सूक्ष्म समझ होने लगती है। मनुष्य सच्चे अर्थों में द्विज बन जाता है।

  • शक्तिपात दीक्षा के बाद साधकों को अपने-अपने प्रारब्ध कर्मों के अनुसार अलग-अलग अनुभूतियाँ होती हैं। शास्त्रों में इन्हें क्रियावती, कलावती, वर्णमयी, वेधमयी, ज्ञानमयी इत्यादि प्रकार की दीक्षा कहा है। शक्तिपात होते ही क्रियावती दीक्षा में साधक को विभिन्न यौगिक क्रियाएँ जैसे- आसन, बन्ध, मुद्राएँ, एवं प्राणायाम अपने आप होने लगते हैं। इन सभी यौगिक क्रियाओं में साधक का सहयोग या असहयोग कुछ भी कार्य नहीं करता है। साधक तो आज्ञाचक्र पर ध्यान करते हुए गुरु द्वारा प्राप्त मंत्र (प्रणव) का जप करता रहता है। सभी प्रकार की यौगिक क्रियाएँ, वह जाग्रत शक्ति (कुण्डलिनी) सीधा अपने नियन्त्रण में स्वयं करवाती है। भौतिक विज्ञान को यह खुली चुनौती है।

  • सभी प्रकार की यौगिक क्रियाओं से कुण्डलिनी ऊर्ध्व गमन करती है। इस प्रकार वह शक्ति तीनों ग्रंथियों- ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि तथा छह चक्रों- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहद, विशुद्ध एवं आज्ञाचक्र का वेधन करती हुई साधक को समाधि स्थिति, जो कि समत्व बोध की स्थिति है, प्राप्त करा देती है। इस प्रकार साधक पतंजलि योगदर्शन में वर्णित कैवल्य अर्थात् वेदान्त के अन्तिम लक्ष्य सच्चिदानन्द को प्राप्त कर लेता है, संत जिसे मोक्ष की संज्ञा देते हैं।

– समर्थ सदगुरुदेव श्री रामलालजी सियाग

कुण्डलिनी जागरण के अद्भुत लाभ

शेयर करेंः