गुरुदेव की जीवनी

भारतीय योग दर्शन में वर्णित सिद्धयोग को मूर्तरूप देने वाले, मानवता में सतोगुण का उत्थान एवं तमोगुण का पतन कर, उसका दिव्य रूपातंरण करने के उद्देश्य से विश्वभर में असंख्य शिष्यों को शक्तिपात दीक्षा द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर अपनी तस्वीर के ध्यान से स्वतः यौगिक क्रियाएँ करवाने वाले समर्थ सदगुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग की जीवनी पढ़ें।

संक्षिप्त परिचय


परम पूज्य समर्थ सदगुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग प्रवृतिमार्गी संत हैं जो पिछले 30 वर्षों से विश्वभर में सिद्धयोग में वर्णित शक्तिपात दीक्षा द्वारा साधकों की कुण्डलिनी जाग्रत कर रहे हैं। इस शक्तिपात दीक्षा की अनोखी बात यह है कि साधक विश्व में कहीं भी रहता हुआ केवल गुरुदेव की दिव्य वाणी में संजीवनी मंत्र को सुनकर सिद्धयोग में दीक्षित हो जाता है। इसके लिए उसे न तो कहीं बाहर जाने की आवश्यकता है और न ही किसी से मिलने की।
  • गुरुदेव का अवतरण (जन्म) बीकानेर के पलाना ग्राम में 24 नवम्बर 1926 को हुआ। गुरुदेव ने भारतीय रेलवे में हैडक्लर्क के पद पर कार्य किया। परिस्थितियोंवश गुरुदेव ने सन् 1968 में, अक्टूबर की नवरात्रि से, गायत्री की आराधना शुरू की, जिसमें उन्होंने गायत्री मंत्र का सवा लाख जप पूरे विधि-विधान से किया। सवा लाख गायत्री मंत्र जाप पूरा करने के अगली सुबह गुरुदेव ने गहरे ध्यान में अपने शरीर को एक दिव्य दूधिया प्रकाश में परिवर्तित हुए देखा। जब उस प्रकाश पर उन्होंने ध्यान दिया तो उन्हें एक काले भंवरे की गुंजन सुनाई पड़ी। जब उस गुंजन पर ध्यान दिया तो उन्होंने पाया कि गायत्री मंत्र नाभि से अविरल जपा जा रहा था। इस प्रकार 01 जनवरी 1969 को गुरुदेव को गायत्री (निर्गुण निराकार) सिद्धि हो गई।

  • स्वामी विवेकानन्द जी के साहित्य को पढ़ने के पश्चात्, जिसमें उन्होंने कहा है कि बिना गुरु बनाए आध्यात्मिक मार्ग में प्रगति नहीं हो सकती, गुरुदेव ने जामसर में आराधना कर रहे बाबा श्री गंगाईनाथजी को गुरु धारण कर लिया, जिनकी अहैतुकी कृपा से सन् 1984 में गुरुदेव को भगवान् श्रीकृष्ण (सगुण साकार) की सिद्धि हो गई। इस प्रकार गायत्री सिद्धि से गुरुदेव को भगवान के निर्गुण निराकार रूप का और कृष्ण सिद्धि से भगवान के सगुण साकार रूप का साक्षात्कार हुआ। इन दोनों सिद्धियों के होने के कारण से गुरुदेव की तस्वीर से स्वतः योग होता है जो आज तक कभी नहीं हुआ।

  • गुरुदेव की तस्वीर पर ध्यान करने से साधक को उसके शरीर की आवश्यकतानुसार स्वतः यौगिक क्रियाएँ होती हैं। इनके द्वारा शरीर-शोधन से सभी तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है और आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्त होता है। वैज्ञानिकों के लिए यह एक रोचक शोध का विषय है कि किस प्रकार गुरुदेव की एक निर्जीव तस्वीर पर ध्यान करने से साधकों को ध्यान के दौरान भिन्न-भिन्न यौगिक क्रियाएँ स्वतः होने लगती हैं।

  • बाबा श्री गंगाईनाथ जी के आदेश से सन् 1986 में रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृति ली तथा जन कल्याण हेतु सन् 1990 से सार्वजनिक रूप से शक्तिपात-दीक्षा देना प्रारम्भ किया। इस दर्शन को विश्व दर्शन बनाने हेतु सन् 10 मई, 1993 को अध्यात्म विज्ञान सत्संग केन्द्र, जोधपुर की स्थापना की। तब से आज तक सिद्धयोग में वर्णित शक्तिपात-दीक्षा से गुरुदेव लाखों शिष्यों को चेतन कर चुके हैं।

  • 05 जून 2017 को निर्जला एकादशी के दिन गुरुदेव ने पार्थिव शरीर को त्याग दिया। गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा है कि यह शरीर गुरु नहीं है। एक सिद्ध गुरु अपने शरीर से सीमित न होकर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी होता है।


आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ


सदगुरुदेव का अवतरण बीकानेर के पलाना ग्राम में 24 नवम्बर 1926 को एक किसान परिवार में हुआ। गुरुदेव का बाल्यकाल, उनके पिता की अकाल मृत्यु के कारण बहुत कष्टपूर्ण रहा।
  • हाई स्कूल की पढ़ाई समाप्त होने पर गुरुदेव ने नौकरी की। गुरुदेव रेलवे में हैड क्लर्क के पद पर कार्यरत थे। उनके पाँच बच्चे (एक पुत्री तथा चार पुत्र) हुए ।

  • १९६८ में अकारण ही गुरुदेव को मृत्यु से भय लगने लगा जिससे उनकी तबीयत खराब हो गई। डाक्टरों ने उन्हें देख कर कहा कि कोई रोग नहीं है। फिर उनके मित्र श्री राम दुबे ने उन्हें बताया कि उनको ‘मारकेश की दशा’ चल रही है। गुरुदेव के पूछने पर कि मारकेश क्या होता है, दुबेजी बोले कि ये मृत्यु का सूचक है। गुरुदेव ने कहा कि मृत्यु तो सभी को आनी है। दुबेजी ने बताया की हमारे धर्म में इससे बचने के उपाय भी हैं और गुरुदेव को सवा लाख गायत्री मंत्र जपने की सलाह दी।

  • विधिवत् सवा लाख जप करने का लक्ष्य था और इस प्रकार करीब साढे़ तीन महीने का समय इस कार्य में लगा। इतने लम्बे समय तक भी गुरुदेव की एकाग्रता और करुण पुकार की स्थिति निरन्तर एक जैसी ही बनी रही। प्रातः चार बजे उठ कर, सवा सात बजे तक और शाम को सात से नौ बजे तक यह जप का कार्यक्रम अबाध गति से चलता रहता था। जिस दिन सवा लाख जप पूरे हो गए, उसके अगले दिन जप बन्द कर दिया।

  • परन्तु आदत वश प्रातः ही ठीक चार बजे नींद खुल गई। क्योंकि जप करना नहीं था, गुरुदेव आँख बंद किये बिस्तर पर ही लेटे रहे । सन् 1968 की सर्दी में प्रारम्भ होने वाली नवरात्रा से जप प्रारम्भ किया था अतः काफी सर्दी पड़ रही थी ।

गुरुदेव रजाई ओढ़े आँख बंद किए लेटे हुए थे कि उन्हें शरीर के अन्दर नाभि से लेकर कण्ठ तक एक अजीब प्रकार की सफेद रोशनी ही रोशनी दिखाई दी। रोशनी के अलावा शरीर का कोई अंग जैसे लीवर, तिल्ली, फेफड़े, हार्ट आदि कुछ भी दिखाई नहीं दिया। गुरुदेव को यह यह देखकर अचम्भा हो रहा था कि रोशनी आँखों से मिलती है, फिर यह अन्दर कैसी रोशनी है, इसके अतिरिक्त ऐसी भयंकर सफेद रोशनी में भी कोई अंग क्यों दिखाई नहीं देता है ! गुरुदेव ने जैसे ध्यान अधिक एकाग्र किया तो उन्हें भँवरे के गुँजन की आवाज सुनाई दी जो कि नाभि में से आ रही थी।
  • ज्यों-ज्यों गुरुदेव उस आवाज की तरफ एकाग्र होते गए , उन्हें स्पष्ट सुनाई देने लगा कि गायत्री मंत्र अपने आप ही अन्दर जपा जा रहा है, उसको जपने वाला कोई नजर ही नहीं आया फिर भी वह अबाध गति से निरन्तर चल रहा है ।

  • गुरुदेव करीब 10-15 मिनटों तक यह सब देखते, सुनते रहे और अपने मन में सोचते रहे कि कैसी विचित्र बात है कि रोशनी आँख से आती है और आवाज कण्ठ से परन्तु यह सब उन अंगों से बहुत नीचे ही कैसे सुना और देखा जा रहा है?

  • करीब पाँच बजे स्नानघर में नल का पानी जोर से फर्श पर गिरा तो ध्यान भंग हो गया। । इसके बाद उठकर नित्यक्रम से निवृत हो कर गुरुदेव अपने कार्य पर चले गए ।

  • परन्तु इसके बाद एक ऐसा परिवर्तन आ गया कि गुरुदेव पान, सिगरेट, चाय आदि का प्रयोग करने में पूर्ण रूप से असमर्थ हो गए । इनके इस्तेमाल का ख्याल आते ही उन्हें बहुत भंयकर घबराहट होने लगती थी। इस प्रकार चाहते हुए भी इन वस्तुओं का इस्तेमाल करना असम्भव हो गया। किसी के साथ खाना खाते और जीवन के किसी भी क्षेत्र में उन्हें थोड़ा सा भी झूठ बोलते हुए भी भारी घबराहट होती थी।

एक विचित्रता गुरुदेव के शरीर में आ गई कि जीवन के किसी उद्देश्य पर अगर वो अपना दिल-दिमाग अधिक एकाग्र होकर सोचने लगते तो उसका स्पष्ट परिणाम टेलीविजन की तरह बहुत पहले स्पष्ट नजर आ जाता और आगे चलकर वह घटना ठीक वैसे ही घटती जैसी उन्हें दिखी थी।
  • इस प्रकार करीब साल भर तक उन्हें असंख्य प्रमाण निरन्तर मिलते ही गए और सभी भौतिक जगत् में ठीक वैसे ही घटित होते चले गये जैसे उन्हें दिखे थे।

  • इस सन्दर्भ में गुरुदेव ने जब पुराणों और शास्त्रों में पारंगत कुछ पण्डितों से परामर्श किया तो उन्हें बतलाया गया कि वास्तव में उन्हें गायत्री की सिद्धि प्राप्त हुई है।

  • उन्होंने उन्हें भौतिक जीवन में निरन्तर आ रही कठिनाइयों को दूर करने के लिये उस शक्ति का प्रयोग करने का परामर्श दिया। गुरुदेव ने उनकी राय पर ध्यान देने से मना कर दिया। इस प्रकार १ जनवरी १९६९ को गुरुदेव को गायत्री सिद्धि हुई (निर्गुण निराकार)

‘‘शब्दों के एक पुँज में ऐसी विचित्र सामर्थ्य और शक्ति होती है, उसकी गुरुदेव ने कल्पना भी नहीं थी।’’
  • अतः जिज्ञासावश उन्होंने फिर आराधना करने की सोची और उस बड़ी शक्ति की आराधना करने का निर्णय लेकर, आराधना प्रारम्भ कर दी।

  • भगवान श्री कृष्ण की तस्वीर गायत्री की तरह सामने रख कर कृष्ण के एक बीज मंत्र का जप प्रारम्भ कर दिया। इसकी न तो कोई निश्चित संख्या तय की और न कोई विषेश उद्देश्य। उसी क्रम से सुबह-शाम करीब ढाई तीन सालों तक जप चलता रहा।

  • एक दिन गुरुदेव को विचार किया कि गायत्री मंत्र से तो कोई सौ गुणा से भी अधिक संख्या हो चुकी होगी फिर अभी तक वैसी ही कोई अनुभूति तो नहीं हुई, ऐसा सोचना था कि एक विचित्र स्थिति पैदा हो गई। हर समय एक परछाई तिरछी नजर से दिखाई देने लगी।

  • एक दिन गुरुदेव को विचार आया कि उन्हें इस विद्या का कोई ज्ञान तो है नहीं, कहीं व्यर्थ कष्टों में फँस न जाएं इसलिए मंत्र जप बन्द कर दिया, परन्तु परछाई दिखनी बन्द नहीं हुई। सोचा इससे कुछ नुकसान तो नहीं हो रहा है, दिखती है तो दिखने दो।

इस प्रकार एक रात्रि को गुरुदेव अपने गाँव में सो रहे थे। करीब पाँच बजे प्रातः एक आवाज सुनाई दी और उसने स्पष्ट कहा कि ‘‘बेटा अब केवल ‘कृष्ण’ का जप कर। यह आवाज दो बार स्पष्ट सुनाई दी। अचानक गुरुदेव की आँख खुल गई, पर किसने आवाज दी, कुछ समझ नहीं सके।
  • एक दिन गुरुदेव को विचार आया कि ‘‘बेटा” शब्द से सम्बोधित करके आवाज दी है, अतः जो भी भला बुरा होगा, उसकी जिम्मेवारी आवाज देने वाले की ही होगी। वो इसके दोष के भागी नहीं होंगे। इसी विचार के साथ सभी प्रणव हटाकर केवल ‘कृष्ण’ का जप प्रारम्भ कर दिया। छोटा सा शब्द और फिर गति पकड़ ने पर पहले वाले से दस गुणा से भी तेज गति से चलने लगा। करीब साल भर हुआ होगा कि एक बहुत ही विचित्र घटना घट गई।

  • एक दिन प्रातः करीब चार बजे के आसपास अर्ध जाग्रत अवस्था में गुरुदेव ने देखा कि ‘‘वो एक कमरे मैं बैठे हैं । एक वैसा ही दूसरा कमरा है, उसके और गुरुदेव के कमरे के बीच में, एक दरवाजा है जिसमें बहुत ही खूबसूरत गुलाबी मखमल का पर्दा ठीक नीचे तक लटक रहा है। ज्यों ही गुरुदेव ने उस पर्दे की तरफ देखा तो वह उन्हें ऐसे हिलते हुए दिखाई दिया मानो हवा के झोंके से हिला हो। इतने में दूसरे कमरे में से आवाज आई कि देख! इसे हिला मत, यह अलग हो जाएगा।

  • गुरुदेव ने कहा कि अगर जोर का, हवा का झोंका आया तो अलग होकर फिर यथास्थिति में आ जाएगा। उधर से आवाज आई इसके हटने का अर्थ समझते हो क्या? गुरुदेव ने जवाब दिया कि जो उन्होंने अभी अर्थ बताया क्या उससे भी भिन्न कोई अर्थ होता है। उधर से आवाज आई -‘हाँ, इसके हटने का क्या अर्थ होता है देख!’

‘‘गुरुदेव ने कहा यह तो बहुत ही अच्छी बात है, इसी के लिए तो यह सब कर रहा हूँ।’’ उधर से आवाज आती है कि- ‘‘यह सब ठीक तो है, परन्तु एक ‘योगभ्रष्ट’ शब्द होता है, वह क्या होता है, क्या उसके बारे में जानते हो?’’ गुरुदेव ने कहा- ‘‘आराधना के दौरान कोई बुरा काम हो जाता है, उससे आराधना का पतन हो जाता है।’’ दूसरी तरफ से आवाज आती है कि- ‘‘होता तो कुछ ऐसा ही है, परन्तु इसकी सही परिभाषा यह नहीं है।’’
  • तुम्हारे छोटे-छोटे बच्चे हैं, पत्नी है, माँ है, वे सभी पूर्ण रूप से तुम पर आश्रित हैं। यह ठीक है कि अगर तुमने इस पर्दे को हटा दिया तो तुम्हारी स्थिति तो ठीक वैसी ही हो जायेगी, जैसी अभी तुमने देखी है, परन्तु इन प्राणियों को इसका ज्ञान, थोड़ा ही है। जब तुम इस जवानी में इनको छोड़ कर चल दोगे तो इनकी आत्मा की करुण पुकार और क्रन्दन तुमको ले डूबेगी। और इस प्रकार ‘‘योगभ्रष्ट” हो जाने के कारण तुम्हारा फिर पतन हो जायगा। अब आगे जैसा तुम ठीक समझो वैसा करो।

  • यह बात सुनकर वो बहुत ही दुविधा में फँस गए । पूछा आराधना का भी ऐसा भंयकर परिणाम हो सकता है, कभी कल्पना भी नहीं की थी। दूसरी तरफ से आवाज आती है, कर्मगति बहुत ही गहन है, इसको कोई नहीं जान सकता। कुछ देर विचार के बाद जब गुरुदेव को कुछ भी समझ में नहीं आया कि अब आगे क्या करना चाहिए तो उन्होंने उसी अदृश्य आवाज से पूछा, "मैं तो कुछ भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि अब मुझे क्या करना चाहिए? अतः कृपया मेरा पथ प्रदर्शन करें, मैं वैसा ही करने को तैयार हूँ।" इस प्रकार उनके प्रार्थना करने पर दूसरे कमरे में से अवाज आती है कि- ‘‘जब यह हिल चुका है तो अपने निश्चित समय पर अपने आप हट जाएगा। अब इसे हिलाना बन्द करके कर्म क्षेत्र में विचरण करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करो।’’ इन शब्दों के साथ ही साथ दृश्य गायब हो गया और गुरुदेव की आँख खुल गई|

  • भोर हो चुकी थी, अतः नित्यकर्म से निवृत हो कर, भगवान् श्री कृष्ण की तस्वीर को ‘माला’ पहना कर गुरुदेव ने छुट्टी ले ली। यह करीब सन् 1974 के अन्तिम समय की बात है। इसके बाद 1983 तक मजदूर संगठनों और राजस्थान किसान यूनियन के विभिन्न पदों पर सक्रिय हो कर कार्य करते रहे । परन्तु जिस प्रकार से पूर्ण आस्था आध्यात्मिक जगत् के चमत्कारों से हो चुकी थी, ध्यान उस पर निरंतर ही लगा रहता था। गुरुदेव भौतिक जगत् के अधिकतर काम आध्यात्मिक शक्तियों के पथ प्रदर्शन से करने के, एक प्रकार से आदि हो गए थे । यही कारण रहा कि बहुत कम असफलता मिली। जिस काम में हाथ डाला, सफल हुए ।


बाबा श्री गंगाईनाथ जी से मुलाकात


  • स्वामी विवेकानन्द को पढ़ा तो गुरू की तलाश आरम्भ की। उन्हें ध्यान के दौरान जामसर (एक छोटा सा गाँव जो बीकानेर से 27 कि.मी. दूर है) में स्थित आश्रम को देखने की उत्कट इच्छा हुई और अप्रैल 1983 में वह जामसर आश्रम गये।

  • कुछ दिनों बाद उन्हें बाबा का पवित्र स्थान देखने की पुनः इच्छा हुई, अप्रैल 1983 में बाबा से यह उनकी दूसरी मुलाकात थी जब गुरुदेव झुके तथा बाबा के चरणस्पर्श किये तब बाबा ने गुरुदेव के सिरपर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।

जिस क्षण बाबा ने गुरुदेव को स्पर्श किया उन्होंने विद्युत प्रवाहित होने जैसी अत्यधिक तीव्र तरंगें शरीर में महसूस की। सिद्धयोग की अद्वितीय विधि द्वारा यह बाबा का गुरुदेव को दीक्षित करने का तरीका था।
  • गुरुदेव शीघ्र ही आश्रम से वापस लौट आये, कुछ भी शब्दों का आदान प्रदान नहीं हुआ। तब गुरुदेव ने माना कि उन्हें जिस गुरू की तलाश थी वह मिल चुका था, तथा उनका जीवन एकबार फिर से बदल चुका था।


विचित्र घटनायें


  • मई, जून 1983 तक उन्होंने मानसिक व्यवधान और भी अधिक बढा हुआ महसूस किया। यह स्थिति आश्रम जाने के बाद भी लगातार बनी रही। 31 दिसम्बर 1983 की सुबह 5 बजे एक बडा झटका लगा।

तेज भूकम्प से समूचा उत्तरी-पश्चिमी भारत हिल गया, पृथ्वी हिली उसके कुछ सैकेण्ड पहले उस सुबह प्रातः ही गुरुदेव एक अज्ञात धक्के से झटके के साथ गहरी नींद से उठ गये थे। गुरुदेव ने बाद में जाना कि उस क्षण बाबा गंगाईनाथ जी गुजर चुके थे।

बाबा का दूसरी दुनियाँ से सन्देश


बाबा ने शीघ्र ही गुरुदेव को यह एहसास करा दिया की वह पूर्व निर्धारित सांसारिक जीवन व्यतीत करने के लिये नहीं है।
  • गुरुदेव को सम्पूर्ण मानवता के रूपान्तरण के लिये धार्मिक क्रान्ति की अगुवाई करने की व्यवस्था करनी थी। गुरुदेव का स्वयं का जो रूपान्तरण हो रहा था उसका अभिप्राय वास्तव में उन्हें आगे आने वाले कठिन कार्य के लिये तैयार करना था।


पैगम्बर से सम्बन्धित दृश्य


  • एक दिन गुरुदेव ने स्वप्न में एक दृश्य देखा। दृश्य में उन्हें पुस्तक का एक अंश दिखलाया गया जिसे वह संदेह के साथ जान सके कि वह किसी पवित्र पुस्तक का हो सकता था, एक आकाशीय शब्दों के साथ “तू वही है, तू वही है”।

कुछ दिनों के पश्चात् गुरुदेव के छोटे पुत्र राजेन्द्र जब स्कूल से घर आ रहे थे तो सड़क के किनारे एक मोची की दुकान से एक फटी पुरानी पुस्तक ले आये, जिसे उन्होंने गुरुदेव को दे दिया।
  • जैसे ही गुरुदेव ने उस पुस्तक के पन्नों को पलटा, उन्होंने उसके एक पृष्ठ पर वह अंश देखा, जो उन्हें स्वप्न में दिखाया गया था। उन्होंने वह पुस्तक पढी, लेकिन वह किस बारे में थी इसकी गहराई का पता न लगा सके।

  • दो वर्ष बाद उन्होंने पहली बार गुरू गंगाईनाथ जी की समाधि पर जाकर प्रार्थना की।


बाइबल की भविष्यवाणियाँ


बीकानेर में गुरुदेव ने आसपास के लोगों से पूछा कि -‘‘क्या ईसाई धर्म में कोई पवित्र ग्रन्थ होता है जैसे हिन्दुओं में गीता होती है?’’ तब उन्हें बाइबल के बारे में पता चला। उन्हें बतलाया गया कि-‘‘किताब के जो अंश उन्होंने दृश्य में देखे थे वह पवित्र पुस्तक के हैं तथा वह अंश सेन्ट जॉहन द्वारा लिखित बाइबल में ईसामसीह के सुसमाचार का एक हिस्सा हैं और स्वप्न में जो उन्होंने देखा था वह अध्याय १५-२६-२७ तथा १६-७-१५ थे।’’
  • फिर हिन्दू धर्म मानने के कारण गुरुदेव ने सोचा कि बाइबल का और आगे अनुसरण करना असंगत है और उस विषय में रुचि समाप्त कर दी।आन्तरिक संदेश व आवाज शीघ्र ही वापस लौटी, गुरुदेव से मूल अंग्रेजी में बाइबल को पढने की बार बार माँग हुई। एक मित्र जो स्थानीय लॉ कॉलेज में व्याख्याता था उससे बाइबल की एक प्रति उधार ली। अंग्रेजी की बाइबल पढना कोई मददगार साबित नहीं हुआ, पुस्तक का वह अंश जो उन्होंने स्वप्न में देखा था किताब में नहीं मिला।

  • पूछताछ करने पर जो जानकारी मिली उससे वह आश्चर्यचकित हुए। ईसाइयत बहुत से भागों में बंटी हुई थी, उनमें से दो मुख्य कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेन्ट हैं, जबकि जो बाइबल उन्होंने पहले पढी थी वह कैथोलिक्स की थी तथा प्रोटेस्टेन्ट द्वारा जो अपनाई गई है वह सेन्ट जॉहन द्वारा लिखित है तथा जो अंश उन्होंने स्वप्न में देखे थे वह उस पुस्तक के थे।


सिद्धगुरू का पद ग्रहण करना


  • बीकानेर लौटने और कार्यालय के काम को फिर से शुरू करने के बाद, गुरुदेव ने ध्यान के दौरान, बाबा से एक आदेश प्राप्त किया कि वह अपनी नौकरी छोड़ दें और खुद को पूरी तरह से उनके द्वारा सौंपे गए आध्यात्मिक मिशन में समर्पित करें। गुरुदेव ने अपनी सेवानिवृत्ति की आयु तक पहुँचने से लगभग सात साल पहले 30 जून 1986 को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले कर नौकरी छोड़ दी।

गुरुदेव कहते थे, ‘‘मैं पहले रेलवे की नौकरी करता था अब मैं अपने गुरू की नौकरी करता हूँ यह जीवनभर की नौकरी है, जिसे मैं कभी नहीं छोड सकता। मैंने अपने परिवार की भौतिक आवश्यकताओं की चिन्ता पूर्ण रूप से उन पर छोड दी है। मैं अपने गुरू का वफादार नौकर हूँ, जो कुछ भी मैं इस मिशन में प्राप्त करूँ अथवा खोऊँ वह उनकी इच्छानुसार ही होगा।’’
  • गुरुदेव ने आरम्भ में जोधपुर में तथा राजस्थान के कुछ अन्य शहरों में दीक्षा कार्यक्रमों के द्वारा लोगों को सिद्धयोग की दीक्षा देनी आरम्भ की। जो गुरुदेव के पास आये और उनके शिष्य बन गये, उन्होंने अपने जीवन में एक आश्चर्यजनक सकारात्मक परिवर्तन महसूस किया, उनकी बीमारियाँ/पुरानी व्याधियां ठीक हो गईं तथा इन कार्यक्रमों में गुरुदेव के द्वारा दिये गये दिव्य मंत्र के जाप तथा ध्यान से उन्होंने आध्यात्मिक जागरूकता महसूस की। जैसे ही गुरुदेव के अद्वितीय सिद्धयोग तथा आरोग्यकर शक्तियों की बात चारों ओर तेजी से अन्य लोगों तक पहुंची, गुरुदेव को दीक्षा कार्यक्रमों के लिए अन्य शहरों और कस्बों में आमंत्रित किया जाने लगा ।

  • गुरुदेव ने भारत के विभिन्न शहरों तथा इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा की और लाखों लोगों को सिद्ध योग में वर्णित शक्तिपात दीक्षा दे कर आध्यात्मिक विकास के पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया।

  • गुरुदेव का कहना है कि जब तक विश्व, बाबा श्री गंगाईनाथजी द्वारा बताये आध्यात्मिक पथ को नहीं अपनाता तब तक विश्व में शांति और प्रेम होना मुश्किल है। गुरुदेव कहते हैं कि “पूर्व की आध्यात्मिकता को पश्चिम के भौतिकवाद के साथ हाथ मिलाने की जरूरत है, अन्यथा दुनिया में संघर्षों और कलह का अंत संभव नहीं ।

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