गुरु क्या है?

शास्त्रों के अनुसार, बहुत ही विशिष्ठ गुणों वाला व्यक्ति ही, गुरु पद की उपाधि के योग्य होता है।

हमारे धर्मशास्त्रों में ‘गुरु’ की बहुत महिमा गाई गई है। गुरु का पद ईश्वर से भी बड़ा माना गया है।

हमारे धर्मशास्त्रों में ‘गुरु’ की बहुत महिमा गाई गई है। गुरु का पद ईश्वर से भी बड़ा माना गया है। इसलिए वेदान्त धर्म को मानने वाले, आजकल संसार के लोग जिन्हें हिन्दू कह कर संबोधित करते हैं, गुरु शिष्य-परम्परा को बहुत महत्त्व देते हैं। हमारी इसी मान्यता के कारण कुछ चतुर लोगों ने इस पद पर एकाधिकार कर लिया है।एक वर्ग विशेष के घर में जन्मा बच्चा, जन्म से ही गुरु पैदा होता है। धर्म और गुरुपद का जितना दुरुपयोग इस युग में हो रहा है, आज तक कभी नहीं हुआ। गुरुओं की एक प्रकार से बाढ़ आ गई है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध, इस युग में पूर्ण रूप से आर्थिक आधार पर टिका हुआ है।

आज का गुरु पूरे परिवार का स्वतः गुरु बन जाता है। यह सम्बन्ध आर्थिक शोषण पनपा रहा है, अतः हमें इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन करने की आवश्यकता है। हमारे शास्त्रों में गुरुपद की जो महिमा की गई है, वह गलत नहीं हो सकती, फिर इस पद की दुर्गति क्यों हो रही है? हमें इस बात की असलियत का पता लगाना चाहिए कि आखिर गुरु तत्व कौन है ? क्या ऐसे ही गुरुओं का हमारे शास्त्रों में गुणगान किया गया है ? हमारे संतों ने गुरु के बारे जो कुछ कहा है, उन्हीं गुण धर्म का प्राणी गुरु कहने योग्य है।

कबीरा धारा अगम की, सद्‌गुरु दई लखाय।उलट ताहि पढ़िए सदा, स्वामी संग लगाय।
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पांय।बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो मिलाय।

- संत कबीर ने गुरु की महिमा करते हुए कहा है

  • उपर्युक्त बातों से यही नतीजा निकलता है कि जिसमें गोविन्द से मिलाने की शक्ति है, मात्र वही ‘गुरु’ कहलाने का अधिकारी है, गुरु पद का अधिकारी है। यह काम जो नहीं कर सकता, उसे कम से कम ‘गुरु’ कहलाने का तो अधिकार नहीं है, बाकी वह कुछ भी बन सकता है।

  • गुरु एक पद है । इस पर पहुँचने के लिए कई बातों की आवश्यकता है। जैसे भौतिक जगत् के पदों के लिए निर्धारित भौतिक ज्ञान की जरूरत है, उसी प्रकार इस पद पर पहुँचने के लिए आध्यात्मिक ज्ञान की जरूरत है, क्योंकि यह पद आध्यात्मिक है। जिस प्रकार लोहे में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं में से गुजरने के बाद चुम्बकीय आकर्षण पैदा होता है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य गहन आध्यात्मिक आराधनाओं से गुजरता हुआ, अपने संत सद्‌गुरु की शरण में जाता है।

  • गुरु अगर उसको ‘पात्र’ समझता है तो अपनी शक्तिपात उस शिष्य में कर देता है, जो कि पूर्ण रूप से समर्पित हो चुका होता है। इस प्रकार की शक्तिपात से मनुष्य ‘द्विज’ बन जाता है। इस प्रकार वह गुरु पद का अधिकारी तो हो जाता है, परन्तु उसे वह पद तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक उसका गुरु पंच भौतिक शरीर में रहता है। ज्यों हि गुरु का शरीर शान्त होता है, वे सभी आध्यात्मिक शक्तियाँ उस शिष्य के शरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं । इस सारी क्रियाओं का ज्ञान केवल गुरु को ही होता है।
  • जिस शिष्य में शक्तिपात किया जाता है, वह गुरु के रहते हुए अनभिज्ञ ही रहता है। ज्यों ही गुरु का शरीर शान्त होने पर सारी शक्तियाँ उसमें प्रविष्ट होकर भौतिक जगत् में अपना प्रभाव दिखाने लगती है तो धीरे-धीरे उसे आभास होने लगता है। इस प्रकार जिसे अनेक जन्मों के कर्म फल के प्रभाव से ईश्वर कृपा और गुरु के आशीर्वाद से गुरु पद प्राप्त होता है वही सच्चा आध्यात्मिक गुरु होता है। जिस प्रकार कर्मफल के अनुसार विशेष योग्यता पाने के बाद भौतिक पद की प्राप्ति होती है, ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक गुरु का पद प्राप्त होता है। भौतिक पद का समय निर्धारित है परन्तु आध्यात्मिक जगत् का गुरुपद जीवन भर के लिए प्राप्त होता है।

ऐसा गुरु भौतिक जगत् में अपना कार्य पूर्ण करके जब अपने अन्तिम समय के पास पहुँच जाता है तो उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। वह त्रिकालदर्शी बन जाता है। अपनी इस विचित्र स्थिति के कारण, वह उस उपयुक्त पात्र को, एक आसन पर बैठा ही खोज लेता है, जिसे वह गुरु पद सौंप कर, इस भौतिक संसार से विदा लेना चाहता है।

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  • अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल से उसे अपने पास बुलाकर समर्पण करवाता है और फिर आश्वस्त होकर प्रभु के ध्यान में लीन हो जाता है। इस प्रकार जिस व्यक्ति को गुरु पद प्राप्त किया हुआ होता है, इसमें मनुष्य का प्रयास अधिक सहायक नहीं होता। सच्चा गुरु वही होता है जो पूर्ण रूप से चेतन हो चुका होता है, उसका सीधा सम्बन्ध ईश्वर से होता है ।

  • इसलिए जो प्राणी ऐसे गुरु से जुड़ जाता है, उसे तत्काल आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होने लगती हैं। आध्यात्मिक शक्तियाँ उसका भौतिक जगत् में पथ प्रदर्शन करने लगती हैं। इस प्रकार वह प्राणी भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप से बहुत उपर उठ जाता है। तामसिकता उससे कोसों दूर भागती है। इस प्रकार शान्त, स्थिर और निर्भय, वह प्राणी अपना ही नहीं, संसार के अनेक जीवों का कल्याण करता हुआ, अपने परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।

  • यह होता है, आध्यात्मिक संत सदगुरुदेव की कृपा का प्रभाव। ऐसा संत पुरुष जो मनुष्यों को द्विज बनाने की स्थिति में पहुँच जाता है, गुरु कहलाने का अधिकारी होता है। गुरु पद कोई खरीदी जाने वाली वस्तु नहीं है। यह पद न किसी जाति विशेष में जन्म लेने से प्राप्त होता है, न कपड़े रंग कर स्वांग रचने से, न किसी शास्त्र के अध्ययन से। यह तो मन रंगने की बात है। ईश्वर करोड़ों सूर्यों से भी अधिक उर्जा का पूँज है, ऐसी परमसत्ता से जुड़ने के कारण, गुरु पारस बन जाता है।

आध्यात्मिक जगत् में धन की मुख्य भूमिका नहीं होती। यह तो श्रद्वा, विश्वास, प्रेम, दया और समर्पण का जगत् है, धन की भूमिका इस जगत् में गौण है।

  • अतः जो मनुष्य इस पारस के सम्पर्क में आता है, सोना बन जाता हैं । ऐसे गुण धर्म के बिना जितने भी गुरु संसार में विचरण कर रहे हैं, सभी ने अपने पेट के लिए विभिन्न स्वांग रच रखे हैं। संसार के भोले प्राणियों को भरमाकर अपना स्वार्थसिद्ध कर रहे हैं। आध्यात्मिक जगत् में धन की मुख्य भूमिका नहीं होती। यह तो श्रद्वा, विश्वास, प्रेम, दया और समर्पण का जगत् है, धन की भूमिका इस जगत् में गौण है। सच्चा संत सद्‌गुरु भाग्य से ही मिलता है, इसमें मानवीय प्रयास अधिक सहायक नहीं होते हैं।
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