दक्षिणी पश्चिमी एशिया के यहूदी तथा अरबी धर्म के अनुयाइयों का विश्वास है कि ईश्वर तथा उसकी रचना मनुष्य दोनों का अलग-अलग अस्तित्व है यह ‘द्वैत‘ वाद कहलाता है क्योंकि यह ईश्वर तथा मनुष्य अलग-अलग हैं, यह सच है, ऐसा मानते हैं।

  • इस धर्म के मानने वाले इस विचार को कि मनुष्य, ईश्वर बन सकता है, मान ही नहीं सकते। वे विश्वास करते हैं कि मनुष्य का ईश्वर से मिलना या किसी भी तरह से वास्तविक रूप में आमने सामने उसे देख पाना असम्भव है। इसके विपरीत, वैदिक (हिन्दू) धर्म विश्वास करता है कि ईश्वर और मनुष्य दोनों का अलग-अलग अस्तित्व नहीं है। हिन्दू दर्शन के अनुसार, पूर्ण विकास होने पर मनुष्य देवत्व प्राप्त कर सकता है।

  • मनुष्य इस पूर्ण विकास को तभी प्राप्त कर सकता है, जब वह भौतिक तथा मानसिक चेतना से ऊपर उठकर अन्तिम तीन आध्यात्मिक चेतनाओं की अवस्थाओं से, गुरू सियाग जैसे दिव्य गुरू के आशीर्वाद के साथ, गुजरते हुए प्रगति करता है। यह अद्वैतवाद है क्योंकि यह ईश्वर तथा मनुष्य में भेद नहीं करता है। हिन्दू दर्शन केवल ‘सोऽ हम‘ (मैं ही ईश्वर हूँ) के विचार को स्पष्ट ही नहीं करता है बल्कि मनुष्य के लिये, विकास की उच्चतम अवस्था को प्राप्त करने हेतु क्रियात्मक विधि भी प्रतिपादित करता है।

ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।

भगवान श्रीकृष्ण

भगवान कृष्ण ने गीता (१८ः६१) में कहा है

भावार्थ: “हे अर्जुन शरीर रूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से भ्रमाता हुआ सब भूत प्राणियों के हृदय में स्थित है”।


वर्तमान ईसाई द्वैतवाद के विश्वास के विरूद्ध बाइबल, हिन्दू विचारधारा के अद्वैतवाद के प्रति प्रतिध्वनित होती है, जब वह कहती है” और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध?

क्योंकि हम तो जीवित परमेश्वर के मन्दिर हैं, जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उसमें बसुँगा, और उसमें चला फिरा करूँगा, और मैं उनका परमेश्वर हूँगा, और वे मेरे लोग”। (२ कुरिन्थियो ६:१६)

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