Image Description Icon
शरीर को कष्ट देना, आसुरी वृति का कार्य है।
16 अप्रैल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक
भगवान् ने गीता के 17वें अध्याय में तीन प्रकार के लोगों की व्याख्या करते हुए कहा है
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: |
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: || (17:4)
  • (हे अर्जुन) सात्त्विक पुरुष देवों को पूजते हैं, राजसी पुरुष यक्ष और राक्षसों को, सभी अन्य तामस मनुष्य प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: |
दम्भाहङ्कारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता: || (17:5)

कर्षयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस: |
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् || (17:6)

- भगवान् श्रीकृष्ण

  • जो मनुष्य शास्त्रीय विधि से रहित घोर तप को तपते हैं, (तथा) दम्भ और अहंकार से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से भी युक्त हैं। शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तः करण में स्थित मुझ अन्तर्यामी को भी कृश करने वाले हैं, उन अज्ञानियों को (तू) आसुरी स्वभाव वाला जान।

  • उपर्युक्त व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए, अगर हम आधुनिक आराधना पद्धतियों को ध्यान से देखें तो हम पायेंगे कि प्रायः सभी आराधनाएँ तामसिक वृत्तियों से प्रेरित हैं।

  • तीनों प्रकार की वृत्तियों को स्पष्ट करते हुए भगवान् ने कहा है-

  • आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः ।
    रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ।। (17.8)

    आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख (और) प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने, स्थिर रहने वाले, स्वभाव से ही मन को प्रिय आहार सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

  • कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।
    आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।। (17.9)

    कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त , अतिगरम, तीक्ष्ण, रूखे, दाहकारक, दुःख, चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार, राजस पुरुष को प्रिय होते हैं।

  • यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
    उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।। (17.10)

    जो भोजन अधपका, रसरहित और दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट है तथा अपवित्र भी है, वह (भोजन) तामस पुरुष को प्रिय होता है।

  • आधुनिक आराधनाओं में शरीर को कष्ट देना, आराधना का मुख्य अंग बन गया है। मनुष्य शरीर को कष्टप्रद तरीकों से दुःख पहुंचाना ही आराधाना माना जाता है।

  • स्वामी विवेकानन्द जी ने एक बार कहा था कि-

  • "इस समय संसार के लोग दुबले-पतले, कृश शरीर वाले व्यक्ति को ही उत्तम आराधक मानते हैं। आराधना का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। कमजोर पुरुष के अगर आध्यात्मिक शक्ति पास से गुजर जायेगी तो वह उसको सहन नहीं कर सकेगा। अतः आराधक का शरीर, मन और बुद्धि पूर्ण रूप से स्वस्थ होना अनिवार्य है। इसके अभाव में मनुष्य सात्त्विक आराधना कर ही नहीं सकता।"

  • इससे स्पष्ट होता है कि सात्त्विक आराधक को सर्वप्रथम खान-पान और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। हम देखते हैं कि इस समय अध्यात्म जगत् के लोग विभिन्न प्रकार के नशीले पदार्थों के आदि हो जाते हैं। इस प्रकार के सभी नशे मनुष्य को आलसी, अकर्मण्य और सुस्त बना देते हैं। ऐसी स्थिति में कोई पुरुष कैसे आराधना कर सकता है? अपनी इस कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए इन सभी नशों का करना आराधना के लिए नितान्त आवश्यक है, ऐसी गलत धारणा समाज में फैला रखी है। इस प्रकार समाज को भ्रमित करके ऐसे असंख्य लोगों के झुण्ड के झुण्ड संसार के हर हिस्से में धर्म की आड़ में मौज उड़ा रहे हैं। यही कारण है कि मानव समाज की ईश्वर और धर्म से आस्था निरन्तर घट रही है। इस समय तो यह ढोंग अपनी चरम सीमा को लांघ चुका है।

  • अतः अब अध्यात्म जगत् में परिवर्तन अवश्यम्भावी हो गया है। संसार के लोग अब परिणाम रहित किसी धार्मिक प्रक्रिया को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। यही कारण है कि अध्यात्म जगत् में भारी खलबली मची हुई है। इस क्षेत्र में भी क्रान्ति की लहर चलने लगी है। अब वह समय अधिक दूर नहीं है जब अध्यात्म जगत् सात्त्विक प्रकाश से जगमगा उठेगा।

शेयर करेंः