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आध्यात्मिक आराधना का समय और आवश्यकता
7 फरवरी 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

आध्यात्मिक आराधना का समय, मनुष्य के जीवन में युवा अवस्था से प्रारम्भ होता है। विद्यार्थी के विद्याध्ययन तक के आखिरी दो तीन सालों में शिक्षा के साथ-साथ, इस क्षेत्र का ज्ञान भी प्राप्त करना अति आवश्यक है। इस उम्र में विद्यार्थी अपने भौतिक जीवन में प्रवेश करने की तैयारी में होता है।

  • भौतिक ज्ञान उसके जीविकोपार्जन में निश्चित रूप से सहयोगी होता है, परन्तु अध्यात्म ज्ञान के बिना किसी भी मनुष्य का जीवन पूर्ण सार्थक और सफल नहीं हो सकता। आध्यात्मिक ज्ञान के बिना मनुष्य का जीवन सरल, शान्त और आनन्दमय नहीं बन सकता।

  • भौतिक विज्ञान एक निर्जीव और अचेतन शक्ति है। अध्यात्म विज्ञान का सीधा सम्बन्ध उस परम चेतन सत्ता से है । यह बात पूर्ण सत्य है कि अध्यात्म विज्ञान, भौतिक विज्ञान का जनक है। मनुष्य के अन्दर बैठी चेतन शक्ति ही धीरे-धीरे क्रमिक विकास के साथ, भौतिक विज्ञान को प्रकट कर रही है। यह ज्ञान उसी चेतन सत्ता की देन है। आध्यात्मिक सत्ता के अधीन अगर भौतिक सत्ता का उपयोग संसार में किया जाय तो यह संसार स्वर्ग बन सकता है। आध्यात्मिक चेतना के बिना भौतक ज्ञान, बन्दर के हाथ में उस्तरा देने के समान है।

  • यही कारण है कि पश्चिमी जगत् के लोग भौतिक ज्ञान की 'चरम सीमा' पर पहुँच कर भी भयंकर अशान्त जीवन बिता रहे हैं। मनुष्य जीवन में सुख-सुविधा प्रदान करने वाले सभी भौतिक साधन उनको उपलब्ध हैं, परन्तु फिर भी उनके जीवन में घोर अशान्ति और द्वन्द्व चल रहा है। अमेरिका इस दृष्टि से सबसे उन्नत और धन्य देश कहलाता है, परन्तु वहाँ अशान्ति और द्वन्द्व की यह स्थिति है कि प्रति दस व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति खूनी है। हमारे देश में भयंकर तामसिकता के रहते हुए भी प्रति एक हजार व्यक्तियों के पीछे भी यह स्थिति नहीं है। यह बात सही है कि ज्यों-ज्यों भौतिक विज्ञान उन्नति कर रहा है, हमारे देश में भी हिंसा और क्रूरता बढ़ती जा रही है।

हमारे वेद स्पष्ट बताते हैं कि एक मात्र भारत ही ऐसा भूखण्ड है, जिसके वायु मण्डल में आध्यात्मिक चेतन शक्तियाँ निरन्तर भ्रमण करती हैं।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

  • यह बात सत्य है कि संसार से अध्यात्म चेतना प्रायः समाप्त हो चुकी है, केवल दिखावा मात्र बाकी बचा है, परन्तु उस चेतना का अन्तिम बीज आज भी भारत की भूमि में ही छिपा हुआ है। यह सत्य है कि हमारे देश में भी संसार के साथ-साथ, इस चेतना का भारी ह्रास हुआ है, परन्तु एक चिंगारी आज भी मौजूद है, जिसको प्रज्वलित करके सारे संसार को प्रकाशमय किया जा सकता है। संसार भर के कई संतों ने इस सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार से भविष्यवाणियाँ कर रखी हैं। महर्षि श्री अरविन्द ने तो स्पष्ट घोषणा कर रखी है कि उस अधिमानसिक देव का अवतरण 24. 11.1926 को भारत की पूण्य भूमि पर हो चुका है। उस मिशन के विद्वानों ने इस तिथि को श्री अरविन्द के सिद्धि प्राप्त करने की संज्ञा दी है, परन्तु श्री अरविन्द ने स्पष्ट लिखा है कि इस दिन उस परमसत्ता ने संसार के कल्याण हेतु, भारत भूमि पर अवतार ले लिया है। सिद्धि प्राप्त करने की झलक, तनिक भी उनकी भाषा में दिखाई नहीं पड़ती।

  • हमारे देश में इस समय आध्यात्मिक आराधना का स्वरूप बड़ा ही विकृत बना रखा है। भौतिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन के बीच में, एक ऐसी काल्पनिक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है जिसका अतिक्रमण करना धर्म का पतन माना जाता है। आध्यात्मिक लोगों और भौतिक क्षेत्र में विचरण करने वालों को व्यावहारिक रूप से दो भागों में विभक्त कर रखा है। आध्यात्मिक लोगों का जीवन पूर्णरूप से निष्क्रिय और अकर्मण्य बना रखा है। ये तथाकथित अध्यात्मवादी लोग विभिन्न प्रकार के नशों के आदि हो जाने के कारण, इनका जीवन पूर्ण रूप से आलस्य और अकर्मण्यता से परिपूर्ण हो चुका है। समाज के लिए इनकी उपयोगिता पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है। ये समाज के लिए पूर्ण रूप से बोझ बन चुके हैं। इस सम्बन्ध में समाज में ज्यों-ज्यों चेतना और समझ बढ़ने लगी है, त्यों-त्यों इन तथाकथित अध्यात्मवादियों का जीवन संकट में पड़ रहा है, इनकी आजीविका चलनी कठिन होती जा रही है, क्योंकि आज समाज इनको निरर्थक भार समझने लगा है।

  • इस समय ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी है कि प्रायः इस क्षेत्र के लोगों को अपना जीवन भिक्षावृति के सहारे बिताना पड़ रहा है। इस कमजोरी को छिपाने के लिए उन्होंने भिक्षा को अपने लिए धार्मिक प्रतीक की संज्ञा देकर इसे अपने लिए अनिवार्य घोषित कर दिया है। इस प्रकार इन लोगों का जीवन पूर्ण रूप से भिक्षावृति पर चलना धर्म का ही एक अंग माना जाने लगा है, परन्तु आज का चेतन समाज इसको भी नकार चुका है। ऐसी स्थिति में इन अकर्मण्य लोगों के झुण्डों का जीवन दूभर होता जा रहा है। अब केवल चोरी और डाकेजनी करना बाकी रह गया है। ऐसी स्थिति के आते ही इस व्यवस्था का अंत हो जाएगा। इस प्रकार अतिक्रमण होने के कारण जो अतिमानसिक चेतना का स्वरूप प्रकट होगा, उसी से संसार का कल्याण होगा।

  • श्री अरविन्द को इस स्थिति का पूर्वाभास हो चुका था। इसीलिए उन्होंने कहा था -

  • परिस्थितियाँ ऐसी करवट लेंगी, इसका मुझे पहले ही ज्ञान हो चुका था। परन्तु अगर सब कुछ नष्ट भ्रष्ट हो जाय तो भी इस विनाश के परे, मुझे सृजन का स्पष्ट स्वरूप नजर आ रहा है।

    - महर्षि अरविन्द

  • सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक और भौतिक जीवन एक दूसरे से भिन्न और विरोधी है ही नहीं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। आध्यात्मिक चेतना की ही देन है- भौतिक विज्ञान। इस प्रकार जब भौतिक चेतना अपनी जननी आध्यात्मिक चेतना के आदेश पर चलने लगेगी, उस समय धरा पर स्वर्ग उतर आवेगा। ऐसी स्थिति में हमारे आदि सनातन धर्म का ‘वसुधौव कुटुम्बकम्’ का सपना साकार होगा।

  • इस प्रकार जब तक यह भौतिक और आध्यात्मिक जीवों के बीच में खिंची, कृत्रिम लक्ष्मण रेखा का अन्त नहीं होगा, संसार में नई चेतना आनी असम्भव है। जिस प्रकार अग्नि से धुएँ को अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भौतिक चेतना को आध्यात्मिक चेतना से अलग नहीं किया जा सकता। जब मानव समाज एक ही सत्ता के दोनों स्वरूपों को भिन्न मानकर चलने लगता है तो उसका जीवन नारकीय बन जाता है। सुख, शान्ति, प्रेम, दया और सहृदयता का स्थान -हिंसा, घृणा, द्वेष, प्रतिशोध आदि तामसिक शक्तियाँ ले लेती हैं। जब यह स्थिति अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो यह तामसिकता आपस में टकरा कर समाप्त हो जाती है। इस प्रकार नये युग का श्रीगणेश होता है।

  • स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। आज मानव समाज में एक पक्षीय व्यवस्था है। विकृति के कारणों में यह भी एक मुख्य कारण है। क्या स्त्री को 'मोक्ष' की आवश्यकता नहीं? आज की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कई धार्मिक आराधनाएँ ऐसी हैं, जिनको करने की स्त्री जाति पर रोक लगा रखी है। कुछ आराधनाएँ ऐसी बना रखी हैं कि प्राकृतिक ढंग से स्त्री उसे करने में सक्षम नहीं है। इस प्रकार धार्मिक क्षेत्र से नारी को एक प्रकार से बहिष्कृत कर रखा है। इस प्रकार जीवन की गाड़ी एक चक्के से चलनी संभव नहीं।

  • मनुष्य जीवन में 15-20 वर्ष तक का समय उषाकाल का है। इस समय मानव बचपन से निकल कर यौवन अवस्था में प्रवेश करता है। शरीर के सारे अंग पूर्ण स्वस्थ और खून में पूरा जोश होता है। ऐसी स्थिति में मानव कुछ कर गुजरने की स्थिति में होता है। अतः यही उपयुक्त विद्या अध्ययन का समय है। भौतिक विद्या के साथ-साथ आध्यात्मिक जगत् का ज्ञान भी प्राप्त करने का यही उपयुक्त (सही) समय होता है। आध्यात्मिक ज्ञान, कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो भौतिक जीवन में रुकावट डाले। इस समय की गलत मान्यताओं ने उसका विकृत स्वरूप बना रखा है। अगर ईश्वर नाम की शक्ति हमारे भौतिक जीवन में प्रत्यक्ष सहयोग न कर सके तो फिर उसको मानने की क्या आवश्यकता है? उसके बिना क्या काम चल नहीं सकता। परन्तु सच्चाई यह है कि वह शक्ति मनुष्य के भौतिक जीवन के हर क्षेत्र में पग-पग पर प्रत्यक्ष रूप में उसका पथ प्रदर्शन करती है।

  • मैं व्यवहारिक जीवन में इसका परीक्षण करके देख चुका हूँ। इसके अतिरिक्त गुरुदेव (बाबा श्री गंगाई नाथ जी योगी) के स्वर्गवास के बाद मुझसे जुड़ने वाले लोगों का भी आध्यात्मिक शक्तियाँ, भौतिक जगत् में पग-पग पर पथ प्रदर्शन कर रही हैं। परीक्षण के तौर पर मैंने पाया कि युवा लोग इस शक्ति को बरदाश्त करने में अधिक सक्षम होते हैं। अधिक उम्र के मनुष्यों की हर शक्ति का ह्रास हो जाने के कारण, वे इस शक्ति को बरदाश्त नहीं कर पाते हैं, और भयभीत हो कर मुझ से दूर भागने का प्रयास करते हैं।

  • आध्यात्मिक आराधना करने वाले लोगों को शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होना जरूरी है। शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कमजोर व्यक्ति इसमें अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।

    - महर्षि अरविन्द

  • आजकल के आध्यात्मिक गुरुओं ने आराधना का समय बुढ़ापे का निश्चित कर रखा है। बुढ़ापे में हर प्रकार की शक्तियों का ह्रास हो जाने के कारण, कई प्रकार की बीमारियाँ मनुष्य को घेर लेती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य इन कष्टों से जूझने में ही अपनी बची खुची शक्ति लगाए रखता है। आराधना के लिए न उसके पास समय रहता है और न शक्ति । इस युग में आराधना का स्वरूप पूर्णरूप से बहिर्मुखी है। अतः कर्मकाण्ड, प्रदर्शन, शब्दजाल, तर्कशास्त्र और अंधविश्वास के सहारे अध्यात्म की शिक्षा देते हैं।

  • यह रास्ता पूर्णरूप से अध्यात्म जगत् से विपरीत दिशा में ले जाता है। अतः परिणाम देने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। युवाशक्ति नये-नये ज्ञान को ग्रहण करने की जिज्ञासा रखती है। जो ज्ञान कोई परिणाम नहीं देता, युवाशक्ति उसे मानने को कभी तैयार नहीं होती। हमारे सभी ऋषि कह गए हैं कि अन्तर्मुखी हुए बिना आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पर्क और उसकी प्रत्यक्षानुभूति असंभव है। जिस व्यक्ति के अन्दर वह शक्ति चेतन हो चुकी होती है, मात्र वही औरों को चेतन करने की स्थिति में होता है।

  • निर्जीव और अचेतन से मानव का कुछ भी भला नहीं हो सकता।

  • श्री अरविन्द ने कहा था कि:

  • अगर वह शक्ति मेरे अन्दर चेतन नहीं होगी तो फिर औरों में भी नहीं होगी।

    प्रथम मनुष्य की जागृति ही कठिन है, उसके बाद तो दीपक से दीपक जलाना आसान काम है। इस प्रकार उस परमसत्ता के चेतन होने के बाद सारे संसार से अंधकार को दूर करना आसान काम है।

  • अतः मानव शक्ति के उषाकाल में ही अगर यह ज्योति जल सके तो वह संसार का कल्याण करने में अधिक सहयोगी सिद्ध होगी। इसमें स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं होता। इस प्रकार गाड़ी के दोनों चक्कों के साथ-साथ चेतन होकर चलने से सम्पूर्ण चेतना शक्ति अपने वेग के साथ, संसार का तमस भगाने में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकती है। अगर दुःखों से जरजरित, मृत्यु भय से भयभीत बूढ़े व्यक्ति में यह चेतना जाग्रत हो जाए तो कुछ लाभ नहीं होगा। वह शक्तिहीन चंद दिनों का मेहमान संसार का क्या भला कर सकता है? युवा शक्ति में इस प्रकाश का जाग्रत होना, मानव का कल्याण कर सकता है।

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