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संन्यास और निष्काम कर्मयोग में कौन श्रेष्ठ है?
9 अप्रैल 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

गीता के पाँचवे अध्याय में अर्जुन ने भगवान् से पूछा :

  • सन्न्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
    यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥
    || गीता -5:1 ||

    हे कृष्ण ! कर्मों से संन्यास की ओर, और फिर निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हो, इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याण कारक (होवे), उसको मेरे लिए कहिए।

इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि :

  • सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
    तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥
    || गीता - 5:2 ||

    हे अर्जुन ! कर्मों का संन्यास और निष्काम कर्मयोग यह दोनों ही परम कल्याण करने वाले हैं, परन्तु उन दोनों में कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्म योग श्रेष्ठ है।

  • ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
    निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥
    || गीता - 5:3 ||

    हे अर्जुन ! जो पुरुष न (किसी से) द्वेष करता है, न आकांक्षा करता है, वह समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित हुआ पुरुष सुखपूर्वक संसार रूप बन्धन से मुक्त हो जाता है।

  • सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
    एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
    || गीता - 5:4 ||

    संन्यास और निष्काम कर्मयोग को मूर्ख लोग अलग अलग कहते हैं, न कि पण्डितजन। एक में भी अच्छी प्रकार स्थिर हुआ दोनों के फलरूप परमात्मा को प्राप्त होता है।

  • यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
    एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
    || गीता - 5:5 ||

    ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को एक देखता है वही (यथार्थ) देखता है।

  • संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
    योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
    || गीता - 5:6 ||

    परन्तु हे अर्जुन ! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास प्राप्त होना कठिन है। भगवत् स्वरूप का मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी, परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

  • योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
    सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
    || गीता - 5:7 ||

    वश में किया हुआ है शरीर जिसके, ऐसा जितेन्द्रिय विशुद्ध अन्तःकरण वाला सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।

  • नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
    पश्यन् श्रृणवन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपन् श्वसन् ॥
    || गीता - 5:8 ||

    प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
    इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥
    || गीता - 5:9 ||

    तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी वो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँखों को खोलता-मींचता हुआ, भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बर्त रही हैं, इस प्रकार समझता हुआ, ऐसे माने कि (मैं ) कुछ भी नहीं करता हूँ।

  • ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ।
    लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥
    || गीता - 5:10 ||

    जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके, आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता।

  • युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
    अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥
    || गीता - 5:12 ||

    निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर को अर्पण करके, भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त होता है। सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा बंधता है। भगवान् ने स्पष्ट कर दिया कि कर्ता भाव के चक्कर में फंसकर ही जीव, माया के अधीन हुआ जन्म-मरण के चक्कर में फँसकर, दुःख भोग रहा है।

  • गीता उपदेश सुनने के बाद भी लोगों का भ्रम दूर नहीं हो रहा है। इसका एक ही करण है कि उपदेशक का भी भ्रम दूर नहीं हुआ है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में संत सत्गुरु की शरण में जाने का बारम्बार आदेश दिया जाता है। चेतन गुरु की वाणी में प्रभाव होता है। क्षणभर में अंधकार दूर हो जाता है।

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