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पुनर्जन्म और जीवात्मा
17 मार्च 1988
गुरुदेव श्री रामलालजी सियाग
एवीएसके, जोधपुर के संस्थापक और संरक्षक

संसार आवागमन का चक्कर है। इस सम्बन्ध में भगवान् ने गीता के 15वें अध्याय में स्पष्ट करते हुए कहा है:

    • ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
      मनः षष्ठानीद्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्णति ।।
      ।। गीता - 15:7 ।।

      हे अर्जुन! इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है। और त्रिगुणमयी माया प्रकृति में स्थित हुई मन सहित पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है।

    • शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्चरः ।
      गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गगन्धानिवाशयात् ।।
      ।। गीता - 15:8 ।।

      वायु गंध के स्थान से गन्ध को जैसे ग्रहण करके ले जाता है, देहादिकों का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है, उससे मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें जाता है।

    • श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घाणमेव च ।
      अधिष्ठाय मनश्रायं ' विषयानुपसेवते ।।
      ।। गीता - 15:9 ।।

      यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके ही विषयों का सेवन करता है।

    • प्उत्क्रामन्तं स्थितंवापि भून्जानं वा गुणान्वितम् ।
      विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।।
      ।। गीता - 15:10 ।।

      शरीर छोड़ कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थिर हुए को और विषयों को भोगते हुए को तथा तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते हैं। ज्ञानरूप नेत्रों वाले ज्ञानीजन ही तत्त्व से जानते हैं।

    • यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
      यतन्नो प्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।।
      ।। गीता - 15:11 ।।

      योगीजन अपने हृदय में स्थित हुए, इस आत्मा को यत्न करते हुए ही तत्त्व से जानते हैं और जिन्होंने अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं किया हैं ऐसे अज्ञानीजन यत्न करते हुए भी इस आत्मा को नहीं जानते हैं।

  • इससे स्पष्ट होता है कि वेदान्त धर्म का पुनर्जन्म का सिद्धान्त पूर्ण सत्य है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने उसकी स्पष्ट व्याख्या की है। क्योंकि कलियुग मात्र शूद्रतत्व पर आधारित युग है, इसलिए इस युग में केवल सेवा को ही धर्म माना जाता है।

  • शुद्र का काम वर्ण व्यवस्था अनुसार सेवा का कार्य है। क्योंकि इस युग में एक ही इस तत्त्व का साम्राज्य है अतः यह तो अपने कर्म को ही धर्म की संज्ञा देगा। यह युग का गुणधर्म है, इसमें किसी का दोष नहीं है। यह तो ईश्वर कृत व्यवस्था है। यथा राजा तथा प्रजा, इसमें कोई दोषी नहीं है। युग परिवर्तन प्रकृति का नियम है।

  • यह निरन्तर काल से चलता आया है। क्योंकि एक चरण का धर्म पृथ्वी का भार अधिक समय तक वहन करने की स्थिति में नहीं होता है अतः इसका समय और युगों से क्रम निश्चित किया गया है।

हमारे धार्मिक सिद्धान्त के अनुसार सत्युग से कलियुग तक हर युग के समय में ह्रास निरन्तर बताया गया है। ज्यों-ज्यों सात्त्विक तत्व कमजोर होता चला गया, मनुष्य की उम्र कम होती चली गई, और इसी प्रकार हर युग का समय भी निरन्तर घटता गया। युग परिवर्तन का मतलब है, उस परमसत्ता का पार्थिव जगत् में अवतरण। इसके बिना युग परिवर्तन हो ही नहीं सकता। पूनर्जन्म के सम्बन्ध में, मेरी प्रत्यक्षानुभूति के अनुसार ज्ञान होना सम्भव है।

- समर्थ सद्‌गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग

  • चेतन गुरु से आध्यात्मिक सम्बन्ध स्थापित करने पर हर मनुष्य को यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है। गुरुद्वारा प्राप्त प्रकाश प्रद "चेतन शब्द" से जीव अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को भेद कर आत्मा से साक्षात्कार कर सकता है क्योंकि आत्मा उस परमसत्ता का ही अंश है।

  • अतः पूर्वजन्म ही क्या आगे होने वाले जन्म का भी ज्ञान सम्भव है। इस युग का मानव इसे सम्भव नहीं मानता है। इसमें उनका दोष नहीं है। यह तो युग का गुण धर्म है। वह समय दूर नहीं जब यह सब बातें संसार के सामने भौतिक रूप से प्रमाणित होने लगेंगी ज्यों ही आध्यात्मिक सत्ता ने भौतिक सत्ता को अपने अधीन करके उसका संचालन प्रारम्भ किया कि सब कुछ परिवर्तित हो जायेगा।

  • इस सम्बन्ध में श्री अरविन्द ने स्पष्ट इशारा करते हुए कहा है :- "वह ज्ञान जिसे ऋषियों ने पाया था, फिर से आ रहा है, उसे सारे संसार को देना होगा।" इस सम्बन्ध में उन्होंने स्पष्ट करते हुए कहा था :- "इसका प्रारम्भ भारत ही कर सकता है। यद्यपि इसका क्षेत्र सार्वभौम होगा, तथापि केन्द्रीय आन्दोलन भारत ही करेगा"। इस देश में वह सनातन धर्म पुनः प्रकट होने वाला है, जिसकी व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा है :-"यदि धर्म में प्रत्यक्षानुभूति न हो तो, वह वास्तव में धर्म कहलाने योग्य है ही नहीं।"

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